रोज़ सुबह जब मैं अख़बार हाथ मे ले कर बैठता हूँ, तो सबसे पहले मेरी आँखों के सामने समाज का दुःखत रूप आता है। हर पन्ना समाज की परिस्तिथियों को मेरे सामने ऐसे बिछा देता है, जैसे कोई शाही भोज हो जो मन हो वो उठा लूँ।
किसी पन्ने पर चोरी, मार-पिट, ख़ून, जैसे असंज्ञेय अपराध हैं। तो कई-कई जगह महिलाओं पर हो रही उत्पीड़न का ब्योरा होता है। महिला तो हर अख़बार का पसन्दीदा विषय है। इस पर चर्चा करे बग़ैर कोई अख़बार छप ही नहीं सकता।
अख़बार पढ़ना केवल उस में छपे शब्दों का उच्चारण करने भर की बात नहीं है। ये कोई पाठ्यक्रम की पुस्तक का पाठ नहीं, जिसको आप ज़ल्दी से पढ़ कर अध्यापक को सुना दो। ये आपके समझ का दर्पण है। जिससे रूबरू हो, आप की आत्मा काँप उठती है।
अख़बार पढ़ना भले ही बच्चों का खेल क्यों न हो, पर उसको समझना कोई खेल नहीं। राजनीति दाँव-पेच हो या सामाजिक जागरूकता सब इन चन्द पन्नों के अन्दर घुला होता है।
- अंकित।
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