कुलदीप (बदल हुआ नाम) दिल्ली में स्नातकोत्तर में पढ़ रहे हैं। जो रोज़ाना दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) से सफ़र करते हैं। एक दिन कंडक्टर द्वारा टिकट लेने के लिए बोलने पर वो खुद को LGBTQ समुदाय का सदस्य बता कर टिकट लेने से इनकार कर देते हैं। सामाजिक परिभाषा के आधार पर कुलदीप देखने में एक पुरुष लगते हैं। कंडक्टर कुलदीप का जवाब सुन कर अचंभित हो जाता है। और फिर इस बात को मज़ाक में उड़ा देते है। बस में बैठे बाकी लोग भी उनके जवाब से अचंभित थे। फिर उनको भी लगा कि कुलदीप मज़ाक कर रहा है।
ऐसी घटना दिल्ली में आम नहीं हैं। दिल्ली की डीटीसी में महिलाओं को फ्री टिकट दिया जाता है। जिस कारण अगर कोई भी लड़का खुद को LGBTQ का सदस्य बता कर टिकट मांगता है तो वो कंडक्टर के लिए दुविधा की परिस्थिति बन जाएगी, क्योंकि डीटीसी केवल दो जेंडर पुरुष और महिला को ही मान्यता देता है। और उन लोगों को डीटीसी में टिकट मिलता है।
वैसे तो भारत में LGBTQ को ले कर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं। पर जब हम डीटीसी जैसी सरकारी व्यवस्था की तरफ देखते हैं तो वहाँ उनके साथ साफ तौर पर भेदभाव होता नज़र आता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमित जुयाल है। जिसने 2022 में डीटीसी के मार्शल के खिलाफ बतमीजी करने का केस दर्ज़ किया था। जिस पर न्यायालय ने दिल्ली सरकार को डांट लागी और 4 महीने में तीसरे जेंडर के लिए डीटीसी में मुफ़्त टिकट देने की व्यवस्था करने के लिए आदेश दिया। और उसके बाद दिल्ली सरकार ने तीसरे जेंडर के लिए डीटीसी में व्यवस्था की बात करते हुए प्लान लेन की बात कही।
दिल्ली सरकार द्वारा जल्द ही तीसरे जेंडर के लिए डीटीसी में मुफ़्त सेवा शुरू की जाएगी। इस व्यवस्था पर बात करते हुए दिल्ली सरकार बताती है कि तीसरे जेंडर को एक प्रमाण पत्र दिया जाएगा जिसको दिखा कर वो मुफ़्त में डीटीसी की सेवा का आनंद ले पाएँगे।
विद्वानों का मानना है कि इस फैसले से समाज में समानता बढ़ेगी और तीसरे जेंडर को बराबरी की नज़रों से देखा जाएगा। समाज में जब भी लोगों के बीच तीसरे जेंडर का कोई भी व्यक्ति उपस्थित होता है तो लोग उन्हें भेदभाव की नज़र से देखते हैं। इस फैसले से लोगों के बीच तीसरे जेंडर की उपस्थिति आम हो जाएगा। जिससे तीसरे जेंडर को डीटीसी में समान नज़रों से ही नहीं देखा जाएगा साथ ही उन्हें रोजगार के भी ज्यादा अफसर मिलेंगे। जितनी तीसरे जेंडर की उपस्थिति आम जनता में बढ़ेगी उतना ही लोगों में इनके प्रति सहजता बढ़ेगी। जनता भी इनके साथ काम करने और उठने बैठने में सहज हो जाएँगे।
इन तर्कों से आम व्यक्ति आसानी से सहमत हो जाएगा। और ये तर्क काफी हद तक सही भी है। पर जब इसको जमीनी स्तर पर जा कर देखा जाए तो ये सारे तर्क धरे के धरे रह जाते हैं। इसको अनिल (बदला हुआ नाम) की कहानी से समझते है। अनिल (19 वर्षीय) जो दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई करता है। वो बताता है कि जब 2023 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिली थी तब उन्होंने घर वालों से पूछा कि वो इस फैसले को किस तरह देखते हैं। तब उनके परिवार ने कहाँ "ये काफी अच्छा फैसला है। वो लोग भी इंसान हैं, उन्हें भी आम नागरिक की तरह सारे अधिकार मिलने चाहिए। उनके साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए।" अनिल परिवार का ये व्यवहार देख कर काफी खुश होता है और कुछ दिनों बाद बताता है कि वो एक 'गे' हैं। अनिल द्वारा गे होने ही बात सुन कर उनका पूरा परिवार परेशान हो जाता है। परिवार सोचता है कि हमारे बेटे हो क्या हुआ है उसको ये 'बीमारी' कैसे हो गई! इसके इलाज के लिए अनिल को उसका परिवार डॉक्टर, तांत्रिक और न जाने कहाँ-कहाँ ले जाता है। अनिल घर वालों का ये व्यवहार देख कर निराश हो जाता है।
अनिल की कहानी समाज का दर्पण सामने रखती है। समाज तीसरे जेंडर को जब तक ही माने को तैयार है जब वो किसी और के घर में है जब ऐसा कोई खुद के घर में हो तो वो उसको भेदभाव और असमानता की नज़रों से देखना शुरू कर देता है। इसमें परिवार की कोई गलती नहीं है। समाज ने लोगों की कंडीशनिंग ही ऐसी की है वो तीसरे जेंडर को आसानी से स्वीकार नहीं कर सकते। जनता में तीसरे जेंडर को लेकर रूढ़िवादी विचार हैं जो कितनी भी कोशिश की जाए समाप्त नहीं होने वाले।
ये रूढ़िवादी विचार केवल पुरुष और महिला में ही नहीं है खुद तीसरे जेंडर के लोगों में भी है। अधिकतर लोग ये स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि वो तीसरे जेंडर हैं। अगर स्वीकार कर भी लें तो ये किसी को पता न चल जाए इस बात से डरते हैं। अनिल हमे बताता है कि वो अपनी पहचान बताने से डरता था और जब उसके परिवार ने सर्वोच्च न्यायालय के समलैंगिक विवाह के फैसले पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दिखाई, तब उसने बताने का निर्णय लिया। पर अनिल ने परिवार को सब कुछ बताया। और उसके बाद परिवार ने जो बात कहीं और प्रतिक्रिया दिखाई, उसको देख कर अनिल मानता है कि उसकी ज़िन्दगी का ये सबसे गलत फैसला था।
दिल्ली सरकार द्वारा डीटीसी में तीसरे जेंडर को मुफ्त सफ़र करने की व्यवस्था ज़रूर इन रूढ़ियों को कमज़ोर करेगी। पर सबसे बड़ा सवाल सामने ये आता है कि इस नीति का कार्यान्वयन कैसे किया जाएगा। अक्टूबर 2019 में महिलाओं के लिए मुफ़्त सफ़र नीति बनाने जितना आसान ये नहीं रहने वाला है। महिला और पुरुष में अंत करना समाज के लिए हमेशा से आसान रहा है। पर जब तीसरे जेंडर की बात होती है तब ये बता पाना की वो तीसरे जेंडर सम्बन्धित हैं ये आसान नहीं।
तीसरे जेंडर के लिए डीटीसी में मुफ़्त सफ़र को ले कर नीति कार्यान्वयन करने में सरकार के सामने कुछ चुनौतियाँ आएँगी। जैसे-
पहचान की चुनौती: 2011 के सेंसस के आधार पर दिल्ली में 4,213 लोग तीसरे जेंडर से सम्बन्धित हैं। अगर सरकार इस आंकड़े के आधार पर लोगों को तीसरे जेंडर का होने का प्रमाण पत्र देगी तब सभी तीसरे जेंडर से सम्बन्धित लोग इसके अंदर नहीं आएँगे। 2011 से 2024 में बेशक तीसरे जेंडर की संख्या बहुत तेज़ी से बड़ी है। जिसका आँकड़ा किसी के पास नहीं। इस नीति को कार्यन्वित करने से पहले सरकार को एक बार फिर जनगणना करने की ज़रूरत पड़ेगी। जो बहुत लम्बी प्रक्रिया हो जाएगी।
सामाज का डर: तीसरे जेंडर से सम्बन्ध रखने वाले लोग समाज के डर से अपनी पहचान बताने से डरते हैं। अगर सरकार उनसे उनकी पहचान जानना जाएगी तब वो सच बताएँगे इसकी कोई गारण्टी नहीं। जिस वजह से सही आँकड़ा सामने नहीं आएगा। और 2011 के आंकड़ों में ज्यादा कोई फर्क दिखेगा नहीं।
कौन-कौन इस नीति का लाभ उठा सकेगा?: सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती आएगी कि वो तीसरे जेंडर को पहचाने की कैसे! केवल जो किन्नर हैं उन्हें ही इसमें रखा जाएगा? या लेस्बियन, गे, एसेक्सुअल सभी लोग इसके अन्दर आएँगे? अगर नहीं तो ये केवल किन्नर के लिए ही नीति होगी। (यहाँ किन्नर के लिए इसलिए बोला जा रहा है क्योंकि दिल्ली सरकार द्वारा इस नीति की बात करते हुए 'किन्नर के लिए डीटीसी में मुफ़्त सफ़र' का ज़िक्र किया था।) फिर तो बाकी सभी तीसरे जेंडर के साथ नाइंसाफी होगी। इसी बीच एसेक्सुअल लोगों की पहचान करना सबसे मुश्किल काम है। एसेक्सुअल वो लोग होते हैं जिनको सम्भोग करने की इच्छा नहीं होती है।
इस नीति पर हमने लोगों की राय ली तब उन सभी लोगों ने इसकी सहराना की। राहुल (बदल हुआ नाम) का मानना है कि “सरकार हर समुदाय को समान अफसर मोहिया करने की कोशिश कर रही है। जिससे समाज में सब समुदायों का प्रतिनिधित्व हो सके। हम देखते रहते हैं कि तीसरे जेंडर के लोग बीच-बीच में अपने अधिकार के लिए आंदोलन करते हैं। उनका कहना है उनके साथ भेदभाव होता है और उनको समान अफसर भी नहीं मिलते हैं।”
जब हमने दिल्ली गेट पर भीख मांगते दो किन्नर से बात की, तब वो बताते हैं कि उन दोनों ने इंजीनियर की पढ़ाई की है। और जब वो रोजगार की तलाश में कंपनियों में गए तो उन्हें किन्नर होने की वजह से जॉब कहीं नहीं मिली। फिर आखिरी में मजबूर होकर उन्हें ये काम करना पड़ रहा है। नीति के आ जाने के बाद शायद ही इन हालातों में कोई बड़ा बदलाव हो।
इस तरह की नीति विकास के नज़रिए से बेशक काफी अहम है। अगर इसका सही से कार्यान्वयन हुआ तो सरकार की काफी सराहना होगी और दूसरे राज्य भी इस तरह की नीति अपना सकते हैं। पर इस नीति का कार्यान्वयन करना ही अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती है।
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